इतनी सी इच्छा मेरी
इतनी सी इच्छा मेरी, देखूं दिन कैसे चढता है, और उतनी ही प्यास देखने की, दिन कैसे ढलता है। इतनी सी इच्छा मेरी, वो चटक तोड़े मेरी अंगड़ाई को, जिन्होंने इन आँखों को कबसे जगाए रखा है। माना मैंने ना देखी, वो शाम क्षितिज की, जब आसमान मानो धरती में लिपटता है। अनजान हूँ, बेखबर हूँ, नहीं जानती उन रंगों के नाम, जिन्हें ज़हन में बरसों से छिपाए रखा है। नहीं भूल सकती उस लालिमा को, जिसने तृप्ति जगाई थी, बस इतनी सी प्यास मेरी, देखूं दिन कैसे चढता है। देखूं उस शाम को, जो धीरे से रंग बिखेरता है, और उस आसमान को, जब वो धरती में लिपटता है । वेदिका